जनसंख्या विस्फ़ोट और धार्मिक रूढियों मे फ़ँसा इन्सान

Tuesday, 26 December 2006

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बात बहुत पुरानी नहीं है मै जहाँ प्रैक्टिस करता हूँ उसके आधा कि. मी. के फ़ासले पर भारत का सबसे विख्यात इस्लामिक स्कूल “नदुआ” स्थित है। इसमे इस्लाम धर्म की शिक्षा ग्रहण करने देश-विदेश के काफ़ी मुस्लिम लडके आते हैं। करीब 20 सालों से अधिकतर लडके मेरे काफ़ी करीब रहे और लखनऊ यूनिर्वसिटी के बिल्कुल बगल मे होने के बावजूद यहां के लडकों में मैने और लडकों की अपेक्षा उच्छृन्खल प्रवृति का अभाव देखा। समस्तीपुर, बिहार का रहने वाला मो. फ़रीद नामक युवक जो यहाँ से आलमियत हाँसिल कर चुका था , घर जाने के पूर्व मुझसे मिलने आया । थोडा सकुचाते हुये बोला , “डा साहब, पिछले दिनों जब मै घर गया था तो मेरे घर वालों ने मेरा निकाह कर दिया , अब मेरी आलमियत पूरी हो चुकी है और मै अपने वतन लौट रहा हूँ, मै आप से कुछ सलाह चाहता हूं।" मैने पहले सोचा कि सेक्स से संबन्धित कुछ सलाह माँगने आया होगा। वह बोला , “ मै अभी परिवार को बढाना नहीं चाहता और आगे भी परिवार को छोटा रखना चाहता हूँ,, मुझे बच्चों पर नियन्त्रण रखने के उपाय बतायें।“ मै बहुत हैरान हुआ क्योंकि वह जिस वर्ग का प्रतिनिधित्व कर रहा था , उसकी पहुँच मुस्लिम समाज मे बहुत है और वह ऐसी सोच बिल्कुल नहीं रखते। गर्भ निरोधक उपाय बताने के बाद मैने उससे कहा, “ फ़रीद , तुम अपनी इस सोच को अपने तक ही सीमित मत रखना और अगर यही सोच अपने समाज मे दे सको तब शायद अपने समाज मे एक नई पहल कर सकोगे।" मुझे नहीं मालूम कि उसने आगे अपनी इस सोच को कितना बढाया लेकिन बाद के कई सालों मे मुझे कई नये मौलाना मिले जो मुझसे अक्सर गर्भ निरोधक उपायों की जानकारी माँगने आते रहते। क्या मुस्लिम समाज में यह एक नई सोच है या समय का बदलाव, यह तो समय ही बतायेगा।

क्या परिवार नियोजन सिर्फ़ आर्थिक मामला है या धार्मिक मामला। इस लेख में कुछ ऐसे ही विचारणीय प्रश्नों को उठायेगें और उनका सही हल भी ढूँढने की कोशिश करेगें।

आज अगर आप संगरहालयों में रखे हुये कई विलुप्त जानवरों के अस्थि- पजरों को देखकर सोच रहे हों कि यह वक्त के साथ विलुप्त हो गये तो यह शायद आप की भूळ होगी। वे सामप्त हुये तो अपनी संतति के बढने के कारण्। वे इतना बढे कि उनके जीने के लिये जगह , भोजन और पानी की किल्लत हो गयी। डारविन का नियम है , "struggle for exixtence" लेकिन जीने के लिये संघर्ष भी एक दूसरे से कब तक करेगें । प्रकृति के साथ यह खेल लम्बे समय तक चल न पाया, इसलिये उनको सामूल नष्ट होना पडा।

क्या मनुष्य जाति के साथ भी ऐसी ही परिस्थिति आ सकती है? अभी तक नहीं आयी वह इसलिये कि प्रकृति ने जन्म और मृत्यु मे एक संतुलन बना रखा था। अगर पहले के दिनों को याद करे जब एक घर मे दस बच्चे होते थे , उनमे से 8 मरते थे और 2 ही बचते थे । आज स्थिति बिल्कुल विपरीत है। मेडिकल सांइस ने जन्म और मृत्यु के बीच का अंतर बहुत कम कर दिया है। अब 1 मरता है और 9 बचते हैं। लेकिन वक्त के साथ हमने मृत्यु के बहुत से दरवाजे तो बन्द कर दिये लेकिन जन्म के सारे दरवाजे खुले रखे। उसका परिणाम सब के सामने है, बेताहाशा बढती हुयी जनसंख्या, सारा संतुलन ही बिगड गया।

क्या इन्सानों के लिये परिवार नियोजन केवल आर्थिक मामला है, शायद नहीं। ' सम्भोग से सम्माधि की ओर' मे ओशो ने इस पक्ष की व्याख्या कुछ इस तरह की:


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"भोजन तो जुटाया जा सकेगा क्योंकि अभी भोजन के स्त्रोत बहुत हैं और आगे भी रहेगें लेकिन आदमी की भीड बढने के साथ क्या आदमी की आत्मा खो तो नहीं जायेगी। पहली बात ध्यान मे रखें कि जीवन एक अवकाश चाहता है। जंगल मे जानवर मुक्त है, मीलों के दायरे में घूमता है, अगर पचास बन्दरों को एक कमरे में बन्द कर दें तो उनका पागल होना शुरु हो जायेगा। प्रत्येक बन्दर को एक लिविग स्पेस चाहिये,खुली जगह चाहिये , जहां वह जी सके। .........................बढती हुई भीड एक-एक व्यक्ति पर चारों तरफ़ से अनजाना दबाब डाल रही है, भले ही हम उन दबाबों को देख न पायें। अगर यह भीड बढती चली जाती है तो मनुष्य के विक्षिप्त (neurotic) हो जाने का डर है।" ओशो


हाँ, अलबत्ता , परिवार नियोजन का मामला धार्मिक अवश्य बन गया है। किसी एक पक्ष पर दोषारोपण करने से काम नहीं चलेगा। अलग-2 पक्ष हैं और अलग-2 तर्क वितर्क हैं। एक नजरिया लेते हैं उन पक्षों का-

1-एक पक्ष कहता है कि परिवार नियोजन द्वारा अपने बच्चों की संख्या कम करना धर्म के खिलाफ़ है क्योंकि बच्चे तो ऊपर वाले की देन हैं और खिलाने वाला भी खुदा है। देने वाला वह, करने वाला वह, कराने वाला वह, फ़िर हम क्यों रोक डालें?

2-दूसरा पक्ष यह कहता है कि परिवार नियोजन जैसा अभी चल रहा है उसमें हम देखते हैं कि हिन्दू ही उसका प्रयोग कर रहे हैं, और बाकी धर्म के लोग ईसाई, मुसलिम इसका उपयोग कम कर रहे हैं। तो हो सकता है कि आने वाले कल में इनकी संख्या इतनी बढ जाये कि दूसरा पाकिस्तान मांग लें या पाकिस्तान या चीन जिनकी जनसंख्या अधिक है, वे ताकतवर हो जायें और हम पर हमला करने की चेष्टा करे।

धार्मिक पक्ष के पहले खंड को देखते हैं।

1- सब धर्मों के धर्म गुरूओ ने सब बातें ईश्वर ? पर थोप दीं कि यह सब उसकी मर्जी है और ईश्वर कभी यह जानने नहीं आता कि उसकी मर्जी क्या है। ईश्वर की इच्छा पर हम अपनी इच्छा थोपते हैं । यह तो इन्सान की बुद्दिमता पर निर्भर है कि वह सुख से रहे या दुख से रहे। जब एक बाप अपने 2-3 बच्चों के बाद भी बच्चे पैदा कर रहा है तो वह उन्हें ऐसी दुनिया मे धक्का दे रहा है जहाँ वह सिर्फ़ गरीबी ही बांट सकेगा। आज हमको यह सोचना ही होगा कि जो हम कर रहे हैं , उससे हर आदमी को जीवन की सुविधा कभी नहीं मिल सकती। हमारे धर्म गुरु समझाते हैं कि यह ईश्वर का विरोध है। तो क्या इसका यह मतलब निकाला जाय कि ईश्वर चाहता है कि लोग दीन और फ़टेहाल रहें। लेकिन अगर यही ईश्वर की चाह है तो ऐसे ईश्वर को भी इंकार करना पडेगा।

एक बात और अगर खुदा बच्चे पैदा कर रहा है तो बच्चों को रोकने की कल्पना कौन पैदा कर रहा है? अगर एक चिकित्सक के भीतर से ईश्वर बच्चे की जान को बचा रहा है तो चिकित्सक के भीतर से उन बच्चों को आने से रोक भी रहा है। अगर सभी कुछ उस खुदा का है तो यह परिवार नियोजन का ख्याल भी उस खुदा का ही है। परिवार नियोजन का सीधा सा अर्थ है कि पृथ्वी कितने लोगों को सुख दे सकती है। उससे ज्यादा लोगों को पृथ्वी पर खडे करना , अपने हाथो से नरक बनाना है। दूसरी बात कि ईश्वर कोई स्पाईवेएर नहीं है जो इन्सान की रतिक्रियाओं पर नजर रखे कि वह किसी साधनों का प्रयोग तो नही कर रहा ।

यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि जो समाज जितना समृद्द है , उसकी जनसंख्या उतनी ही कम है। अपने देश, मुस्लिम देशों और पश्चिम देशों मे यह अन्तर साफ़ दिख सकता है। बढती हुई जनसंख्या मे सबसे बुरी मार बेचारे गरीब आदमी की हुई, वह इसलिये गरीब नहीं है क्योंकि उसकी आय के साधन कम है, बलिक इसलिये कि उसकी बुद्दि को भ्रष्ट करने मे उसके तथाकथित धर्मगुरुओं का साथ मिला । एक समृद्द इनसान अपने सेक्स की उर्जा को दूसरे कामों मे लगा देता है -मसलन संगीत, साहित्य, खेल, लेखन आदि। लेकिन एक गरीब के पास सेक्स ही उसके मनोरजंन का साधन मात्र रह जाता है। भारत में अगर अधिक बच्चों का अनुपात देखें तो इस वर्ग मे अधिक मिलता है, और फ़िर वह हिन्दू हो या मुस्लिम , इससे फ़र्क नही पडता। मुस्लिमों में अधिक इसलिये भी है वह अपनी बुद्दि पर कम और अपने धर्मगुरुओं की बुद्दि पर ज्यादा निर्भर रहते हैं। हिन्दू समाज मे वक्त के साथ उनके धर्मगुरुओं का प्रभाव कम होता गया जिसकी वजह से इन लोगों की पकड अब इतनी मजबूत नहीं दिखती।

2-जब हम दूसरे पक्ष के बारे मे बात करें कि क्या परिवार नियोजन को किसी की स्वेच्छा पर छोडा जाना उचित है? यह तो ऐसा ही सवाल है जैसे कि हम हत्या को या डाके को स्वेच्छा पर छोड दें कि जिसे करनी हो करे। अत: परिवार नियोजन को अनिवार्य, कम्पलसरी कर देना ही उचित है। और जब हम इस जीवंत सवाल को अनिवार्य कर देगें तो यह हिन्दू, मुसलमान, ईसाई का सवाल नहीं रह जायेगा। आज के हालातों पर जरा नजर दौडायें तो इन सबके धर्मगुरु समझा रहे हैं कि तुम कम हो जाओगे या फ़लाने जयादा हो जायेगें। और हकीकत यह है कि ये सब जो सोच रहे हैं , इनके सोचने की वजह से भी अनिवार्य परिवार नियोजन का विचार समाप्त हो रहा है।.

एक और सवाल कि ऐसा हो सकता है कि अगर मुस्लिमों की आबादी इतनी बढ जाय कि वह दूसरे पाकिस्तान की माँग करने लगें। आज के वैज्ञानिक युग में जनसंख्या का कम होना, शक्ति का कम होना नहीं है। बल्कि जिन मुल्कों की जनसंख्या जितनी अधिक है वह टैकनोलोजी दृष्टिकोण से उतने ही कमजोर है। क्योंकि इतनी बडी जनसंख्या के पालन पोषण मे इनकी अतिरिक्त सम्पति बचने वाली नही है। वह जमाना गया ,जब आदमी ताकतवर था, अब युग दिमाग और मशीन का है। और मशीन उसी देश के पास हो सकेगी, जिस देश के पास संपन्नता होगी और संपन्नता उसी देश के अधिक पास होगी जिस देश के पास प्राकृतिक साधन ज्यादा और जनसंख्या कम होगी।

दूसरी बात यह बात समझने जैसी है कि संख्या कम होने से उतना बडा दुर्माग्य नहीं टूटेगा, जितना बडा दुर्भाग्य संख्या के बढ जाने से बिना किसी हमले के टूट जायेगा। आज के दौर में युद्द इतना बडा खतरा नहीं है जितना कि जनसंख्या विस्फ़ोट का है।

आज हर धर्मावलंबी को यह निर्णय लेना है कि सवाल उनकी गिनती का है या देश का। और अगर गिनती का है तो मुल्क का मर जाना निशचित है। और अगर यह साहसिक निर्णय देश का है तो किसी को तो लेना ही है। जो समाज इस निर्णय को लेगा , वह संपन्न हो जायेगा। मुसलमानों मे उनके बच्चे ज्यादा स्वस्थ ,अधिक शिक्षित होगें, ज्यादा अच्छी तरह जीवन निर्वाह करेगें। वे दूसरे समाजों और खासकर अपने ही समाज मे जिनकी संख्या कीडे-मकोडों की तरह है, उनको छोडकर आगे बढ जायेगें। और, इसका परिणाम यह भी होगा कि दूसरे समाजों और उनके ही समुदायों मे भी स्पर्धा पैदा होगी इस ख्याल से कि वे गलती कर रहे हैं।

यह सब तब ही संभव है जब हमारी सरकारें वोट-बैंक की राजनीति से परे हट कर परिवार नियोजन को स्वेच्छित नहीं , बल्कि अनिवार्य बनायेंगी ।

(इस लेख की मूल भावना ओशो रजनीश की पुस्तक " सम्भोग से सम्माधि तक " से ली गई है। विवादों मे घिरी ऐसी पुस्तक जिसको आम लोगों ने हेय दृष्टि से ही देखा, लेकिन पढकर परखा नहीं , ज़ीवन के फ़लसफ़े को एक नया आयाम देती हुई यह पुस्तक , अगर न पढी हो तो पढें अवशय ।)

 

18 comments:

SHUAIB said...

जहां तक मेरा ख़याल है, मुसलिम समाज मे बढ़ती ग़ुरबत की वजह से आज एहसास हुआ की यूं आबादी बढ़ाते रहने से ग़रीबी का ख़ातमा नहीं हो सकता। ज़्यदा से ज़्यादा औलाद पैदा करना इस्लाम मे कोई बुरी बात नही बल्कि समझा जाता है कि जितनी ज़्यादा औलाद होगी उतनी ही बरकत होगी। भारत मे सबसे ज़्यादा इसलामी मद्रसे (स्कूल) UP मे ही हैं - जहां तक मैं समझता हूं पूरे भारत मे UP के मुस्लमान बाक़ी भारती मुस्लमानों मे सबसे निचला तिब्क़ा है। काफ़ी अच्छा लेख पोस्ट किया है डा. साहब, धन्यवाद आपका

Shrish said...

बिल्कुल डॉक्टर साहब एकदम सही लिखा है। मैंने अक्सर देखा है कि मेरे दोस्तों और परिचितों में जो मुस्लिम तो शिक्षित और जागरुक हैं उनका तो परिवार छोटा तथा सुखी व समृद्ध है और जो अनपढ़ व पिछड़े हैं वे ही आँख मूँदकर धर्मगुरुओं की बातों पर चलते हैं। नतीजा ये कि उनके बच्चे या तो छोटे मोटे पेशों जैसे मिस्त्री, मजदूरी आदि से जीवनयापन कर रहे हैं या फिर अपराधों में लिप्त हैं जब कि पहले प्रकार के परिवारों में ऐसा नहीं है।

फिर ये मुस्लिम धर्मगुरु तो कमाल की बातें करते हैं कि पोलियो का टीका न लगवाओ, परिवार नियोजन न करो, लड़कियों को स्कूल पढ़ने मत भेजो आदि-आदि।

वैसे ये लेख देखकर एक बार लगा कि क्या ये आपने ही लिखा है। सच कहूँ तो 'वो कौन थी' वाली पोस्ट के बाद ये दूसरी पोस्ट है जो मुझे पूरी समझ आयी। ;)

प्रियंकर said...

मुस्लिम समाज में आने वाले बदलाव को आपने बहुत सही-सही लक्षित किया है . बदलाव की रफ़्तार भले ही धीमी हो पर बदलाव आ रहा है.

Pratik Pandey said...

बहुत ही उम्दा लेख है। आपका नज़रिया और गम्भीर विश्लेषण लाजवाब है।

जगदीश भाटिया said...

शानदार विश्लेषण किया डाक्टर साहब! :)
सचाई तो यही है कि मामला धर्म के साथ साथ अनपढ़ता और गरीबी का भी है। शिक्षित आदमी किसी भी धर्म का हो इन बातो
को समझता है।

संजय बेंगाणी said...

साधूवाद. उम्दा लिखा है.
परिवार नियोजन का विरोध खुदा की मर्जी का वास्ता देकर करने वाले, बिमार पड़ने पर या दूर्घटना होने पर दवाईयाँ न ले कर दिखाए. आखिर खुदा की मर्जी जो तुम्हे बिमार किया, बचाना होगा तो बच जाओगे. दवाई लेकर खुदा के काम में टाँग काहे डाल रहे हो?

अनुराग said...

बेंगाणी साब की टिप्पणी बेहतरीन लगी। खैर लेख तो बढ़िया है ही।

Pramendra Pratap Singh said...

डो.सा. क्‍या सटीक लिखा है, आज समाज मे इसी प्रकार की जगरूकता की जरूरत है आज भारतीय मुस्लिम वही के खड़े है और मौला मौलबियों की हॉं मे हाँ मे मिलाते है। भारतीय उपमहादीप मे तीन बडे मुस्लिम राष्‍ट्र है जहॉं बाग्‍लादेश मे मुस्लिम सोच भारत और पाकिस्‍तान से काफी अच्‍छी है वे परिवार नियोजन को अपना रहे है। अगर मै यह कहूँ तो गलत न होगा कि भारतीय मुस्लिम अन्‍य राष्‍ट्रों मे मुस्लिमो से विचारों के मामले मे एक सदी पीछे है क्‍या पश्चिम के मुस्लिम खुदा या कुरान की नही मानते है? यह सोचने का विषय है।

PRAVIN GOSWAMI said...

सर आपका लेख बहुत ही सारग्रभीत है.काश ये बात लोगो के समझ मे आ जाये. कोइ खुदा या पर्मातमा बाहर नही है. जो आपको परीवार िनयोजन के िलये मना कर रहा है. परीवार िनयोजन आज के िलये एक आव्श्यक्ता है. तभी आप सुखी समाज की रचना कर सकते है.

सद्गुरू ओशो के िवचार मानव को सही बोध देते है.

सन्जय बेगाणी जी की िवचार से मै सहमत हु.

पूनम मिश्रा said...

हर युग का सत्य अलग होता है.हो सकता है पहले ज़माने में बच्चों को खुदा की देन समझ कर उनकी संख्या बढाना उस युग का सच हो जब चिकित्सा की इतनी सुविधाएं नहीं थी और मृत्यु दर काफी ऊँची थी.लेकिन आज का सच यह है कि अधिक आबादी हमारे विकास के पथ में बाधा डालती है .सटीक,सामायिक एवं निर्भीक लेख के लिये बधाई.

जगदीश भाटिया said...

डा.साहब कृपया बतायें यह ओशो वाला डिब्बा कैसे बनाया है?

समीर लाल said...

अति उत्तम एवं उमदा. बधाई.

DR RAJEEV SINGH said...

Badhia Sir;
I appreciate your vision . Keep it always aur hum logon ko bhi jagate rahiye.

भुवनेश said...

लेख वाकई अच्छा लगा
आपका विश्लेषणात्मक दृष्टिकोंण काबिलेतारीफ़ है

संजीत त्रिपाठी said...

वाह डाक्टर साब,……विश्लेषण बढ़िया किया है आपने, आपके चिठ्ठे पे मुझे आते रहना होगा।
वैसे जनसंख्या की समस्या कई और भी समस्याओं की जननी है, अगर हम बहुत से समस्याओं के मूल मे जाएं तो हम पाएंगे कि आखिरकार मूल समस्या जनसंख्या का बढ़ना ही है।

गरिमा said...

आपके विचार से पुरी तरह सहमत हुँ।

समाज को जागरूक होना चाहिये ना कि अंधविश्वासी, मुस्लिम धर्म के बारे मे तो नही पता, लेकिन हिन्दु वेदो मे कही ऐसा नही लिखा जिससे परिवार नियोजन को गलत साबीत किया जा सके।
इसलिये अक्सर मै कहा करती हुँ हम वेद नही लबेद( जो धर्म गुरुओ की मनगढन्त कहानी है और कुछ नही) मानते हैं, और इसक असर साफ दिखता है।

शुक्रिया
गरिमा

Amit said...

Sab logon ko ye baat samajhni chahiye, log jitne jyada honge, samasyaein utni badhegi.

अजित वडनेरकर said...

"ईश्वर कोई स्पाईवेएर नहीं है जो इन्सान की रतिक्रियाओं पर नजर रख"

समस्या के मद्देनजर उक्त पंक्ति सटीक व्यंग्य है। उम्दा आलेख। शुक्रिया।